कुंठाओं से शिकस्त,
कब तक ?
ग्रंथियां ये बेड़ियाँ,
रोकेंगी राहें,
आखिर कब तक ?
कूप का अन्धकार,
मेरा है।
इन परछाईयों से,
सरोकार भी,
मेरा है।
भ्रम और तृष्णा,
का ज्वार,
हाँ वह भी मेरा है।
किसने गुंथा ऐसा
संसार, जिसमे हर
दुःख, हर पीड़ा,
मानो सब मेरा है।
दूर छोर इस कूप के,
इक बूँद रौशनी की,
बदलती निराशा;
इक दिशा आशा की ..
खींच लेना है खुद को,
इस तमस से ..
अंतर्मन स्वयं,
संबल सहारा है।।
कब तक ?
ग्रंथियां ये बेड़ियाँ,
रोकेंगी राहें,
आखिर कब तक ?
कूप का अन्धकार,
मेरा है।
इन परछाईयों से,
सरोकार भी,
मेरा है।
भ्रम और तृष्णा,
का ज्वार,
हाँ वह भी मेरा है।
किसने गुंथा ऐसा
संसार, जिसमे हर
दुःख, हर पीड़ा,
मानो सब मेरा है।
दूर छोर इस कूप के,
इक बूँद रौशनी की,
बदलती निराशा;
इक दिशा आशा की ..
खींच लेना है खुद को,
इस तमस से ..
अंतर्मन स्वयं,
संबल सहारा है।।
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